आख़िर तुम चले ही गए,
कितने दिनों से तुम्हारे आने का इंतजार था,
तुम्हें नज़र भर के देखने की आरजू बलवती हो रही थी।
हृदय एक अपरिचित हलचल से भरता जा रहा था,
इस तरह एक दिन मौसम बदला
और तुम आये भी,
इन आँखों ने दीदार भी किया
तुम्हारी एक झलक भर से मन शीतल हो गया।
रोम रोम में प्रसन्नता मुखर हो रही थी
तुम्हें रोज मिल सकता इतना नसीब वाला नहीं मग़र
मेरे लिए सबसे बड़ी नेमत यही थी कि तुम करीब हो।
और फिर वही तुम्हारी यादों का सिलसिला चलता रहा,
तुमसे मिलने को नए नए असफल प्रयास करता रहा,
ऐसे में ही एक दिन कहानी ने रुख बदल लिया अपना
तुम्हारे जाने की ख़बर मेरी नींदों पर भारी होने लगी।
अक्सर ही तुम चले जाओगे इस ख्याल से नींद टूट जाती थी,
घण्टों जेहन में तुम्हारी सूरत को निहारता गया,
चुपके चुपके मन में बस तुम्हें ही पुकारता गया।
लो वह सुबह भी आ गई जो यहां से तुम्हें ले जाएगी,
ये पागल मुझे तुम्हारी आहट से दूर न कर पाएगी।
शायद तुम्हारा भी मन उदास है कल की रात से ही,
कोई पीर खटक रही होगी मन मे जाने की बात से।
जागते सोते घण्टो विचार में डूबा होगा मन,
याद खूब आया होगा गांव में व्यतीत किया हर क्षण,
कि कल चले जायेंगे कुछ दिनों के लिए गांव से,
भरे पूरे परिवार की बरगद की छांव से।
मन किया होगा कि दादी को पुकार लूं मनुहार से,
और कहूं "अम्मा कोई कहानी सुना दो न", प्यार से।
इस तरह होते करते सुबह हो गई होगी
जाने की तैयारियां रास न आ रही होगी
भारी मन से इधर उधर आना जाना,
अपनो से दूर न जाने की इच्छा और जाने की विवशता
एक ओर अपनों का साथ दूसरी ओर कर्तव्य और जिम्मेदारी
भारी भारी आवाज को छिपाकर कहना
मम्मा सब पैक कर दिया है न कुछ छूटा तो नहीं
खाने की चीजें बहुत क्यों रखती हो
ये सब खाने का मेरा मन नहीं करता
मेरे वो कपड़े और हां वो किताब रख देना जरूरी है
फ़िर आंखों में आंसुओं को छिपाकर तैयार होना
कभी कुतूहल बस इनसे मिलना कभी उनसे मिलना
और अचानक फिर "कुछ छूटा तो नहीं",
हां सच मे बहुत कुछ छूटा जा रहा था,
बचपन के साथी शीतल सी छाया,
छोटे भाई से अनायास का लड़ना।
घर, घर का बरांडा गली आंगन,
खिड़की के पर्दे जो हवा से कभी उड़ा करते हैं,
वो फूलों की डालियाँ जिनपर फूल खिला करते हैं।
वो मिट्टी का दिया जो वर्षों से ड्योढ़ी पर जलता आया है,
कुछ दिनों के लिए माँ का आँचल छूट रहा पिता का साया है।
कुछ जहन में उठती पुरानी यादें,
खट्टे मीठे जीवन की सौगाते।
इस तरह सोच विचार करते करते,
बिना मन के थोड़ा बहुत ब्रेकफ़ास्ट करके
मन ही मन में बुदबुदाते हुए कहा होगा
चलो अब जाने का समय आ गया
सामान सारा रख दिया जाता है
अब तक जो छिपा बैठा था देर से आँख में
आखिर आपकी आंख से वो आंसू भी छलक गया होगा।
आंसुओं को पोंछकर शुभ विदा कहते हुए
सबने आगे बढ़ने की दुवा दी होगी।
अधीर मन रुआंसी आंख और कर्तव्य का बोध
मन मे रख आप भी गाड़ी पर बैठ गए होंगे।
गाड़ी आख़िर उस जगह पहुंच जाती है,
जहाँ बेसब्री से मेरी आँखें तुम्हारी राह तकती थी।
मैं छिपकर खड़ा देखता जा रहा था राह की ओर,
अचानक मुझे आती दिखी तुम हमारी ओर ओर।
शायद देखा हो तुमने सामने खड़ी थी बाइक मेरी
जान बूझकर खड़ा किया था बस तुम्हें ये बताने को,
कि मैं भी यहीं कहीं खड़ा हूँ कब से
बेक़रार होकर एक झलक तुम्हारी पाने को।
मैं झांकता रहा एक कोने से कांपता रहा मेरा शरीर,
भला तुम ही बताओ विवशता से बड़ी होती है कोई पीर।
तुम्हारे साथ प्राण तो नहीं गए पर प्राणशक्ति चली गई,
मैं अवाक निस्तब्ध हो गया मेरी हर खुशी चली गई।
मेरी जिंदगी चली गई मेरी आरजू चली गई,
मुददत की मेरी तलाश मेरी ज़ुस्तज़ू चली गई।
कभी मुस्कराकर मिली कभी मिली मुझे जो खिली खिली,
मुझसे नाराज़ थी जो इक परी मेरी वो परी चली गई।
इसे विवशता कहूं या बुझदिली तुमको सामने से निहार न सका,
बड़े क़रीब से निकल गए तुम मैं पुकार न सका।
तुम ही कहो तुम्हें पुकारने की हिम्मत मैं कैसे जुटाता,
तुम्हारे जाने से मैं ख़ुश हूं कि दुखी तुम्हें कैसे बताता।
नहीं मैं इतना भी डेरिंग नहीं कि आंसूभरके मुस्कराता।
तुम्हारे लिए क्या हूं मैं इससे कोई बड़ा फर्क़ नहीं पड़ता,
पर मेरी आंखें रोती तो शायद तुमको भी ये अच्छा नहीं लगता,
माना कि तुम्हारा दूर होना मेरे लिए ग़म की बात है,
मगर दूर जाकर आगे बढ़ना,तरक्की करना गर्व की बात है।
तुम्हारी बुलन्दी की राह में आंसू बहाता तो लानत की बात थी,
और तुम्हें दूर जाता देख आंख न भीगे तो कयामत की बात थी।
इसलिए जाओ साथी तुम्हें तुम्हारा सफ़ऱ मुबारक़ हो,
मुझे अब तुम्हारी याद के संग जीने का तरीका सीखना है।
मेरे लिए हंसने से कहीं ज्यादा अब रोना ज़रूरी है,
आंसुओ से वफ़ा की बाग़ में मोहब्बत का फूल सींचना है।
मेरी आँखों से जितनी दूर हो तुम उतना शायद आकाश भी नहीं,
और मेरे दिल के जितने करीब हो तुम उतना तो मैं खुद भी नहीं।
अच्छा चलो जाओ कर्तव्यपथ पर आगे बढ़ो
सफलता की सीढ़ियों पर सीढियां चढो।
पर ये भी याद रखना ये हक़ीक़त है
दूर जाकर भी तुम मुझमें कहीं रह ही गए।
देखो न आख़िर तुम चले ही गए।।
सुमित
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