वक़्त तो हर वक़्त हमारा इम्तहान लेता है
हम भी चलो वक़्त का इम्तहान लेकर देखते हैं
बीते हुए लम्हों ने वादा किया था साथ देने का
उन लम्हों को ज़हन में फिर दोहराकर देखते हैं
उसकी तस्वीर क्यों हमेशा धुंधली नज़र आती है
चलो एक बार आँख से पानी पोंछकर देखते हैं
आदतें उसकी अपनाकर उसे मनाने की तमन्ना है
कागज़ पर शेर कुछ उल्टे हाथ से लिखकर देखते हैं
कड़ककर चमकती बिजली के दिल में पीर है कोई
पहले तुम चौंकते थे आज हम चौंककर देखते हैं
गंवारा है नहीं जिसे अपने होंठों पर हमारा नाम तक लाना
हम उसी की याद में जीना गंवारा करके देखते हैं
वो ग़ुलाब की पंखुड़ी सी नाज़ुक तितली सी चंचल है
यूं ही नहीं हम रोज उसे ख्वाब में डूबकर देखते हैं
भले बाद मुद्दत मगर बिछड़े मिलते हैं जरूर
सुमित कयामत तक उसका इंतज़ार करके देखते हैं।
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