फूल सुन्दर ना होते तो क्या होता ,
नदियां कल कल न बहतीं तो क्या होता,
चिड़यां यूँ न चहकतीं तो क्या होता,
आंखें बिलकुल न रोतीं तो क्या होता,
ये मैं जानें क्यों सोचा करता हूँ
ऐसा न होता तो क्या होता ,
वैसा न होता तो क्या होता ,
शायद कुछ न कुछ तो होता!
ये जानता है मन ।
पर किसी अपरचित भय से काँपता है मन।
और सबकुछ जानकर भी खामोश हो जाता हूँ,
नन्हें बच्चे की माफ़िक नींद में बेहोश हो जाता हूँ।
होश में आते ही फिर वही पैंडुलम चलने लगता है,कि
मछली न होती तो पानी का क्या होता ,
बारात न होती तो अगवानी का क्या होता ,
परियां न होती तो कहानी का क्या होता ,
मौजें न होतीं तो रवानी का क्या होता न
क्या होता गर कुछ भी न होता ?????
सम्भवतः कुछ ऐसा ही होता ,
जो टूटते तारे के साथ होता है,
या कि जो स्वाति के बिना पपीहे का होता है,
या कि जो बसन्त के बिना कोयल का होता है,
या कि जो पतझड़ में हरे भरे पेड़ों का होता है,
या की जो ऑक्सीजन के बिना अस्पतालों में होता है,
अथवा हे प्रिय, वह होता, जो कि
तुम्हारी अनुपस्थिति में मेरा होता है।
मेरी जागती आँखों का सपना,
सदैव अधूरा होता है।
आंसुओं के बिना आँखों में,
रेत का बसेरा होता है।
जैसे की रात भर मुर्दे की देख रेख ,
करने वाले के घर सवेरा होता है।
या कि, तुम्हारे चले जाने के बाद,
अब कहाँ सबेरा होता है।
या कि..
अब कहाँ सवेरा होता है।।।।
- सुमित पटेल
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